शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

ज़िन्दगी को खोने का डर

वास्तव में हम जिंदगी तभी खो देते हैं जब हमारे दिमाग में ये डर लगा रहता हैं कि मेरे जीवन का क्या होगा
निराशा डर के पनपने का एक कारण हैं।
        डर एक ऐसी बीमारी हैं जो किसी को भी अपाहिज बना सकता हैं,चलते फिरते आदमी को घुटनों के बल पटक देता हैं,कुछ एक शब्द में पूरी बात को समेटू तो यह की डर वह हैं जो जीते हुए व्यक्ति को भी मुर्दे के जैसा बनाने से नहीं चुकता।
डर व्यक्ति को पल पल मारता हैं।
डर को बवक्त की मौत कहना गलत नही होगा।
क्यूँकी वास्तव में डरकर जीना कोई जीना ही नहीं हैं।
अब आप सोचेंगे कि ये भाषण क्यों झाड रहा हैं,तो अब असली मुद्दे पर आते हैं।
डर केवल भूत प्रेतों से ही नहीं होता हैं जनाब।
डर के भी अपने अलग अलग रंग हैं,रूप हैं।
कैसे?
       जब आप कभी गलती से कोई गलती कर बैठते हैं,तो डांट का डर
परीक्षा में कम अंक या फ़ैल होने का डर
नौकरी छूट जाने का डर
रिश्तें टूट जाने का डर
और कितने ही ऐसे गम हैं जिसमें हम सारी जिंदगी खफा देते हैं और इससे हमे मिलता क्या हैं-एक घुटन भरी और बदहवास जिंदगी। एक मिनट,शायद इसे जिंदगी कहना गलत होगा।
गम में डर में जीना कोई ज़िन्दगी नही हैं।
             उपाय ऐसा कि घुटन भरी जिंदगी के पंख कतर दिए जाएंगे फिर भी आप ख़ुशी के आसमान में सैर करेंगे।
कैसे?
      पता करते हैं की डर आखिर पैदा कैसे होता हैं;डर पैदा होता हैं उम्मीदों की तिजोरी के टूटने के आभाष होने पर या उम्मीदों की उस तिजोरी क लुटे जाने पर।
                 साफ़ शब्दों में कहूँ तो जिंदगी को किसी सीमा रेखा में मत बांधो यार,पर कुछ दायरा होना भी चाहिए जिससे कि हमारे खयाली घोड़े हमे कुछ गलत दिशा में छलांग न लगवा बैठे।सीमा या दायरा यदि रखना हैं तो केवल मर्यादा और अनुशाशन की रखो।
मर्यादा,मान और अनुशाशन ये तीनो डर के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
ऐसा करने से आपको डर से आज़ादी और खुदसे मोहब्बत हो जाएगी,खुद और सबसे मोहब्बत से रहना ही तो जिंदगी हसीन दोस्तों;
तो जीत गए न आप डर से और मिल लिए न असली जिंदगी से।
           Stay tune.. :-)

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