सर्दी की सुबह,कोहरे से छंटती हसीं वादियाँ,और रेशमी से वो एक किरण सुरज की,मन को भीगा देती हैं अंदर तक,जब गुनगुनी धुप हमे स्पर्श करती हैं तो ऐसा लगता हैं जैसे हमारा रोम रोम गुनगुने पानी के बिना ही स्नान कर रहा हो।
ऐसा एहसास होता हैं कि ये पल यूँ ही थम सा गया हो। ऐसी ही होती हें न सर्दियों की भौर?
पर इस बार तो ठंड की दस्तक कब हुई और कब चली गयी किसी को कानो कान खबर भी नही हुई। पर एक बात नहीं बदली,वो ये कि सूरज की वो पहली किरण बिलकुल वैसी ही छटा बिखेरे हुए हैं। हाँ इसका अहसास जरूर बदला हैं,अब ऐसा लगता हैं मानों सहस्त्रो मिलो के सफर से आई वो रौशनी कह रही हो की ऐ इंसान मैं तेरे लिए इतनी लम्बी यात्रा से आई हूँ तो तू भी तो मुझे कहीं अपने अंदर विश्राम तो कर लेने दे।
यकीन मानिए और केवल सोचिये कि आपने उस किरण को अपने अंदर समाहित कर उसे विश्राम की जगह दी हो,यह एहसास आपको नई उर्जा से भर देगा।
गज़ब हे न, कि विश्राम धूप का और ऊर्जा मिले आपको
यही तो है कुदरत,जो सिर्फ देना जानती हैं।
आइये कुछ इस लेन देन के अलावा प्रकृति से निष्काम प्रेम लेते चले और औरो में बांटते चलें।
आपका अपना सन्तोष यादव
Smile :-)
ज़िन्दगी एक किताब की तरह हैं,कुछ पन्नों को आपके सामने लाने की कोशिश हैं बस .............
बुधवार, 3 फ़रवरी 2016
गुनगुनी धुप का आनन्द। आहा!....
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आओ किसी के लिए सांता बने
(कविता) माटी के उस ढेर से ,आओ चीज नवीनता से सने । बाँटकर खुशियाँ दुखियारों में,आओ किसी के लिए सांता बने।। जीवन की राह कठिन हैं,साहस व धैर...
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